मैं तुम्हें कैसे दिखाऊं, मुझे मेरा शहर नहीं दिखता!
ना दोस्त मिलते हैं, ना वो प्यार टकराता है,
ना अड्डा सजता है, ना कोई वहां बुलाता है,
ना चूरन कोई खाता है, ना वैसे समोसे बनाता है,
ना रिक्शेवाला दिखता है, ना पुराना स्कूटर चलता है,
ना वो सिनेमा घर है, ना लाइन में कोई लगता है,
अब भाषा भी फीकी-फीकी सी पड़ गयी है,
अंग्रेजी के गुरूर में लिपटी सहम सी गई है!
उन दिनों की बात है, जब शहर ज़हर लगता था,
छोटा शहर, छोटा काम, छोटा ओहदा, छोटा नाम
अपना शहर सपनों के रास्ते कंकर सा चुभता था,
इसीलिए छोड़ आये कि दूर निकल जायेंगे,
लेकिन यह नहीं सोचा कि शहर भी बढ़ जायेगा!
अब समोसे नहीं खाते लोग, वहाँ मोमोस बिकते हैं,
अब मेले नहीं लगते, स्टैंड-अप शोज चलते हैं,
ना चूरन-टॉफी लेते बच्चे, वो भी सूशी ही खाते हैं,
पंजाबी रह गयी पीछे, सब अंग्रेजी अपनाते हैं!
मैं कितना खुदगर्ज़, अपना बदलना तरक्की,
पर शहर का बदलना धोका सा लगता है!
अब मैं कैसे दिखाऊं मेरा शहर कैसा दिखता था,
मेरे बचपन का उन गलियों से जो रिश्ता था,
मैं अपने शहर की भाषा को याद करता हूँ,
ना इधर का रहा ना उधर का, यही सोचता हूँ!
डिस्क्लोजर: यह प्रेरित नोस्टाल्जिया है; एक लेखन समुदाय में मार्च के "लेखन प्रॉम्प्ट"के उत्तर में लिखा गया है।
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